औषध सेवन काल
(शार्ङ्गधर संहिता )
“भैषज्यमभ्यवहरेत् प्रभाते प्रायशो बुधः ।
कषायाश्च विशेषेण तत्र भेदस्तु दर्शितः ॥ १॥
बुध्दिमान रोगी का कर्तव्य है कि वह प्रायः (अधिकांश विशेष निर्देश के अभाव में) औषध का सेवन प्रातःकाल ही करे । विशेष करके कषायों (स्वरस, कल्क , क्वाथ, हिम, फाण्ट) का सेवन तो अवश्य ही प्रातः काल करे ।
औषध सेवन के पाँच काल
“ज्ञेयः पञ्चविधः काले भैषज्य ग्रहणे नृणाम् ।
किञ्चित् सूर्योदये जाते तथा दिवसभोजने ॥ २॥
सायन्तने भोजने च मुहूश्चपि तथा निशि ।
मनुष्यों के लिए औषध सेवन के पांच कालो का निर्देश किया गया है -
१. कुछ सूर्य उदय होने पर ( यह अरुणोदय से सूर्योदय होने तक कि मध्य अवधि है )
२. दिन के भोजन के समय में
३. सायं काल के भोजन के समय में
४. बार बार
५. रात्री में (सोने के समय )
औषध सेवन का प्रथम काल :-
“प्रायः पित्तकफोद्रेके विरेकवमनार्थयोः ॥ ३॥
लेखनार्थं च भैषज्यं प्रभाते तत् समाहरेत् ।
एवं स्यात् प्रथमः कालो भैषज्यग्रहणे नृणाम् ॥ ४॥”
पित्त अथवा कफ दोष कि वृध्दि होने पर विरेचन या वमन कराने के लिए और दोषो को विशेष करके कफ दोष को अपने स्थान से खुरच कर बाहर निकालने के लिए प्रायः (अधिकांश) प्रातःकाल औषध योग का प्रयोग करना चाहिए । इसप्रकार यह मनुष्यों के लिए औषध सेवन का प्रथम काल कहा गया है ।
औषध सेवन का द्वितीय काल :-
“भैषज्यं विगुणेsपाने भोजनाग्रे प्रशस्यते ।
असचौ चित्र भोज्यैश्च मिश्रं रुचिरमाहरेत् ॥ ५॥
समानवाते विगुणे मन्देsग्नावग्नि दीपनम् ।
दद्दाद भोजन मध्ये च भैषज्यं कुशलो भिषक् ॥ ६॥
व्यान कोपे च भैषज्यं भोजनान्ते समाहरेत् ।
हिक्का s s क्षेपक कम्पेषु पूर्वमन्ते च भोजनात् ॥ ७॥
एवं द्वितीय कालश्च प्रोक्तों भैषज्यकर्मणि ।”
अपान वायु कि विकृति से होने वाले (मलाशय , बस्ति तथा गर्भाशय संबंधी ) रोगों में भोजन करने के पहले औषध सेवन करना उत्तम होता है । भोजन के प्रति अरुचि हो जाने पर विविध प्रकार के रुचिकर, किन्तु पथ्य भोजनो में मिलाकर औषध सेवन करना चाहिए । समान वायु की विकृति से होने वाले (पक्वाशय के मन्द पड़ जाने ) में , अग्नि की शक्ति को बढ़ाने वाले औषध योग को भोजन के बीच में कुशल चिकित्सक दे । व्यान वायु के प्रकोप से होने वाले (अर्दित = मुखप्रदेश का लकवा तथा पक्षाघात आदि ) रोगों में भोजन के अन्त में औषध सेवन करना चाहिए । हिचकी , आक्षेपक (वातव्याधि - विशेष देखे- मा. नि. ) तथा कम्पवात आदि रोगों में भोजन के तथा भोजन करने के बाद औषध सेवन करना चाहिए । इस प्रकार यह औषध सेवन करने के दूसरे काल का वर्णन कर दिया गया है ।
औषध सेवन का तृतीय काल :-
“उदाने कुपिते वाते स्वरभंगादिकारिणी ॥ ८॥
ग्रासे ग्रासन्तरे देयं भैषज्यं सान्ध्यभोजने ।
प्राणे प्रदुष्टे सान्ध्यस्य भुक्तस्यान्ते च दीयते ॥ ९॥
औषधं प्रायशो धीरैः कालोsयं स्यात् तृतीयकः ।”
स्वर भंग (स्वरभेद) आदि ( कास,श्वास, हिक्का जैसे) रोगों को उत्पन्न करने वाले उदान नमक वायु ( जो कंठ श्वास मार्ग में निवास करता है, उस ) के प्रकुपित हो जाने पर सांयकालीन भोजन के समय प्रत्येक ग्रास के साथ औषध देना चाहिए और हृदय गति का सञ्चालन करने वाली प्राण वायु के कुपित होने पर सांयकालीन भोजन के अंत में विद्वान् चिकित्सक को औषध प्रयोग कराना चाहिए । इस प्रकार यह औषध सेवन का तीसरा काल है।
औषध सेवन का चतुर्थ काल :-
“मुहुर्मुहुश्च तृटच्छर्दी हिक्का श्वासगरेपु च ॥ १०॥
सान्नं च भेषजं दद्दादिति कालश्चतुर्थकः ।”
तृट ( प्यास ) छर्दि ( वमन, उल्टी या कै ) हिचकी , श्वास ( दमा ) तथा विविध गैरों (दूषी विषों के प्रयोग के कारण उत्पन्न रोगों) में बार-बार (अनेक बार) भोजन में मिलाकर औषध का सेवन कराना चाहिए । यह औषध सेवन का चौथा काल कहा गया है ।
औषध सेवन का पञ्चम काल :-
“उर्ध्वजत्रुविकारेषु लेखने बृंहणे तथा ॥ ११॥
पाचनं शमनं देयमनन्नं भेषजं निशि ।
इति पञ्चमकालश्च प्रोक्तो भैषज्यकर्मणि ॥ १२॥”
जत्रु ( collar bone - ग्रीवा के सामने उभरी हुई अस्थि ) के ऊपरी भाग में होने वाले अवयवों ( गला, मुख, नाक , कान , आँख तथा सिर ) के रोगों में , लेखन ( कर्षण - खुरचकर निकालने या कृश करने ) , बृंहण ( स्थूल करने ) में पाचन तथा शमन औषध योगों का प्रयोग रात में भोजन के पहले ही करना चाहिए । यह औषध सेवन का पांचवा काल कह दिया गया है ।