गुरुवार, 30 जनवरी 2014

औषध सेवन काल  
(शार्ङ्गधर संहिता )

“भैषज्यमभ्यवहरेत् प्रभाते प्रायशो बुधः ।
कषायाश्च विशेषेण तत्र भेदस्तु दर्शितः ॥ १॥
बुध्दिमान रोगी का कर्तव्य है कि वह प्रायः (अधिकांश विशेष निर्देश के अभाव में) औषध का सेवन प्रातःकाल ही करे । विशेष करके कषायों  (स्वरस, कल्क , क्वाथ, हिम, फाण्ट) का सेवन तो अवश्य ही प्रातः काल करे ।
औषध सेवन के पाँच काल
“ज्ञेयः पञ्चविधः काले भैषज्य ग्रहणे नृणाम् ।
किञ्चित् सूर्योदये जाते तथा दिवसभोजने ॥ २॥
सायन्तने भोजने च मुहूश्चपि तथा निशि ।
मनुष्यों के लिए औषध सेवन के पांच कालो का निर्देश किया गया है -
१. कुछ सूर्य उदय होने पर ( यह अरुणोदय से सूर्योदय होने तक कि मध्य अवधि है )
२. दिन के भोजन के समय में
३. सायं काल के भोजन के समय में
४. बार बार
५. रात्री में (सोने के समय )
औषध सेवन का प्रथम काल :-
“प्रायः पित्तकफोद्रेके विरेकवमनार्थयोः ॥ ३॥
लेखनार्थं च भैषज्यं प्रभाते तत् समाहरेत् ।
एवं स्यात् प्रथमः  कालो भैषज्यग्रहणे नृणाम् ॥ ४॥”
पित्त अथवा कफ दोष कि वृध्दि होने पर विरेचन या वमन कराने के लिए और दोषो को विशेष करके कफ दोष को अपने स्थान से खुरच कर बाहर निकालने के लिए प्रायः (अधिकांश) प्रातःकाल औषध योग का प्रयोग करना चाहिए । इसप्रकार यह मनुष्यों के लिए औषध सेवन का प्रथम काल कहा गया है ।
औषध सेवन का द्वितीय काल :-
“भैषज्यं  विगुणेsपाने भोजनाग्रे प्रशस्यते ।
असचौ चित्र भोज्यैश्च मिश्रं रुचिरमाहरेत्  ॥ ५॥
समानवाते विगुणे मन्देsग्नावग्नि दीपनम् ।
दद्दाद भोजन मध्ये च भैषज्यं कुशलो भिषक् ॥ ६॥
व्यान कोपे च भैषज्यं  भोजनान्ते समाहरेत् ।
हिक्का s s क्षेपक कम्पेषु पूर्वमन्ते च भोजनात् ॥ ७॥
एवं द्वितीय कालश्च प्रोक्तों भैषज्यकर्मणि ।”
अपान वायु कि विकृति से होने वाले (मलाशय , बस्ति तथा गर्भाशय संबंधी ) रोगों में भोजन करने के पहले औषध सेवन करना उत्तम होता है । भोजन के प्रति अरुचि हो जाने पर विविध प्रकार के रुचिकर, किन्तु पथ्य भोजनो में मिलाकर औषध सेवन करना चाहिए । समान वायु की विकृति से होने वाले (पक्वाशय के मन्द पड़ जाने ) में , अग्नि की शक्ति को बढ़ाने वाले औषध योग को भोजन के बीच में कुशल चिकित्सक दे । व्यान वायु के प्रकोप से होने वाले (अर्दित = मुखप्रदेश का लकवा तथा पक्षाघात आदि ) रोगों में भोजन के अन्त में औषध सेवन करना चाहिए । हिचकी , आक्षेपक (वातव्याधि - विशेष देखे- मा. नि. ) तथा कम्पवात आदि रोगों में भोजन के तथा भोजन करने के बाद औषध सेवन करना चाहिए । इस प्रकार यह औषध सेवन करने के दूसरे काल का वर्णन कर दिया गया है ।
औषध सेवन का तृतीय काल :-
“उदाने कुपिते वाते स्वरभंगादिकारिणी ॥ ८॥
ग्रासे ग्रासन्तरे देयं भैषज्यं सान्ध्यभोजने ।
प्राणे प्रदुष्टे सान्ध्यस्य भुक्तस्यान्ते च दीयते ॥ ९॥
औषधं प्रायशो धीरैः कालोsयं  स्यात् तृतीयकः ।”
स्वर भंग (स्वरभेद) आदि ( कास,श्वास, हिक्का जैसे) रोगों को उत्पन्न करने वाले उदान नमक वायु ( जो कंठ श्वास मार्ग में निवास करता है, उस ) के प्रकुपित हो जाने पर सांयकालीन भोजन के समय प्रत्येक ग्रास के साथ औषध देना चाहिए और हृदय गति का सञ्चालन करने वाली प्राण वायु के कुपित होने पर सांयकालीन भोजन के अंत में विद्वान् चिकित्सक को औषध प्रयोग कराना चाहिए । इस प्रकार यह औषध सेवन का तीसरा काल है।
औषध सेवन का चतुर्थ काल :-
“मुहुर्मुहुश्च तृटच्छर्दी हिक्का श्वासगरेपु च ॥ १०॥
सान्नं च भेषजं दद्दादिति कालश्चतुर्थकः ।”
तृट ( प्यास ) छर्दि ( वमन, उल्टी या कै ) हिचकी , श्वास ( दमा ) तथा विविध गैरों (दूषी विषों के प्रयोग के कारण उत्पन्न रोगों) में बार-बार (अनेक बार) भोजन में मिलाकर औषध का सेवन कराना चाहिए । यह औषध सेवन का चौथा काल कहा गया है ।
औषध सेवन का पञ्चम काल :-
“उर्ध्वजत्रुविकारेषु लेखने बृंहणे तथा ॥ ११॥
पाचनं शमनं देयमनन्नं भेषजं निशि ।
इति पञ्चमकालश्च प्रोक्तो भैषज्यकर्मणि ॥ १२॥”
जत्रु ( collar bone - ग्रीवा के सामने उभरी हुई अस्थि ) के ऊपरी भाग में होने वाले अवयवों ( गला, मुख, नाक , कान , आँख तथा सिर ) के रोगों में , लेखन ( कर्षण - खुरचकर निकालने या कृश  करने ) , बृंहण ( स्थूल करने ) में पाचन तथा शमन औषध योगों का प्रयोग रात में भोजन के पहले ही करना चाहिए । यह औषध सेवन का पांचवा काल कह दिया गया है ।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

औषध सेवन काल

१. अभुक्त :-  प्रातः खाली पेट , परन्तु बालक , वृध्द , स्त्री, सुकुमार प्रकृति वाले को कुछ खिला करके ही प्रातः काल औषध सेवन कराना चाहिए , अन्यथा ग्लानि और बल का क्षय होता है।  (सुश्रुत)
( शार्ङ्गधर का मत है कि पित्त और कफ की वृध्दि में विरेचन और वमन कराने के लिए तथा लेखन के लिए प्रातः काल अभुक्त सेवन प्रायः सब प्रकार के औषध विशेषकर कषाय ( काढ़ा) प्रातःकाल ही देना चहिए)

२. प्राग्भुक्त :-  औषध खिलाकर तुरंत अन्न सेवन , औषध शीघ्र पचन, बल हानि नहीं, अन्न में मिलने से वमन में बाहर नहीं आती। (सुश्रुत)
वृध्द वाग्भट्ट कहते है कि अपान वायु के विकारों में नाभि के नीचे बल देने के लिए तथा उनके विकारो को शान्त करने के लिए और शरीर को पतला करने के लिए प्राग्भुक्त औषध देना चाहिए।

३. अधोभुक्त :- अन्न खाकर तत्काल औषध सेवन नाभी से ऊपर होने वाले रोग को दूर करती है और उन अवयवो को बल देती है।
वृ वाग्भट्ट कहते है व्यान वायु के विकारो में प्रातःकाल के भोजन के बाद और उदान वायु के विकारो में सांयकाल के भोजन के बाद औषधि देनी चाहिए। अधोभुक्त के समय में खाई हुई औषध शरीर को स्थूल (मोटा) बनाती है।

४. मध्य भुक्त :-   जो औषध आधा भोजन करके ली जाये और शेष भोजन ऊपर से किया जाये , उसे मध्य भुक्त कहते है।  भोजन के मध्य में ली गयी औषध कोष्ठ में होने वाले रोगों को दूर करती है।
वृ वाग्भट्ट कहते है समान वायु के विक़ार, कोष्ठ के रोग और पित्त के रोग इनमें मध्य भुक्त औषधि देनी चाहिए।

५. अन्तरा भुक्त :-  जो औषध सबेरे और शाम को भोजन के मध्य में ली जाये अन्तरा भुक्त औषध हृदय और मन को बल देने वाली , दीपन और पथ्य होती है। अन्तरा भुक्त औषध दीप्ताग्नि और व्यान वायु के विकारों में दी जाती है।

६. सभुक्त :-  जो औषध अन्न के साथ दी जाये  पकाये हुए अन्न में मिलाकर दिया जाये , उसको सभुक्त औषध काल कहते है।  सभुक्त औषध दुर्बल , स्त्री , बालक, सुकुमार, वृध्द, और औषध लेना पसन्द न करने वाले , अरूचि और सर्वांगगत रोग में देनी चाहिए।

७. सामुदग् :-  जो पाचन , अवलेह, चूर्ण, आदि औषध लघु और अल्प, अन्न के आदी और अन्त में दिया जाये ,  सामुदग् औषध हिक्का, कम्प, और आक्षेप में तथा जब दोष अधो व उर्ध्व दोनों मार्ग में फैले हो, तब देनी चाहिए।

८. मुहुर्मुह :-  अन्न के साथ अथवा खाली पेट में जो बारबार औषध दिया जाये उसे मुहुर्मुह  कहते है।
सांस बढ़ी हुई , खांसी हिचकी वमन तृष्णा और विष विकारों में बारंबार औषध देनी चाहिए।

९. सग्रास :- जो औषध प्रत्येक ग्रास में या कुछ ग्रासों में मंदाग्नि वाले जठराग्नि प्रदीप्त करने के लिए चूर्ण अवलेह गुटिका आदि का तथा वाजीकर औषध सग्रास अर्थात् कौर-कौर  में मिलाकर देनी चाहिए।

१०. ग्रासांतर :- औषध यदि दो ग्रासों के बीच में दिया जाये तो उसको ग्रासांतर औषधकाल कहते है।  वमन कराने वाले धूम और श्वास कास आदि में प्रसिध्द गुणवाले अवलेह दो ग्रासों के बीच में देना चाहिए।

वृ वाग्भट्ट कहते है प्राण वायु के विकारों में सग्रास और ग्रासांतर में औषधी देनी चाहिए।

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

सुवर्ण प्राशन


बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमताओं को बढाकर उनके सर्वांगीण विकास में सहायक भारतीय चिकित्सा परम्परा की अनूठी देन हैं ।
“सुवर्ण प्राशन संस्कार”
हम सभी वर्तमान काल में अपने बच्चों का शारीरिक व मानसिक विकास अच्छे प्रकार से हो एवं वे किसी भी रोग से आक्रान्त न हो इसप्रकार की चिंता में सदैव रहते है , इस हेतु हम बच्चों को जन्म से ही विभिन्न सुरक्षात्मक उपाय करते है । (जैसे रोगानुसार टीकाकरण )
आयुर्वेदाचार्योँ ने भी बच्चों के शारीरिक व मानसिक स्वस्थ्य के दृष्टी से चिंतन कर सुवर्ण प्राशन की योजना की है । जिसमें सुवर्ण के गुणों से युक्त ऐसे कल्प का उपयोग किया जाता है,जो हमारे बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमताओं की वृध्दीकर सभी प्रकार के रोगों से रक्षा करने में सहायक है,साथ ही अनेक शारीरिक व मानसिक गुणों की वृध्दिकर बच्चों को सर्वगुण संपन्न करने में सहायक है


सुवर्ण प्राशन का लाभ


“सुवर्ण प्राशनं ह्येततन्मेधाग्निबलवर्धनम ।
आयुष्यं मंगलम पुण्यं वृष्यं वर्ण्यम गृहापहम ॥
मासात परममेधावी व्यधिभिर्न च धृष्यते ।
षड्भिर्मासैः श्रुतधरः सुवर्ण प्राशनादभवेत ॥
(काश्यप संहिता , सूत्र स्थान लेहनाध्याय )
१. मेधावृध्दिकर - बुध्दि बढ़ाने वाला
२. अग्निवृध्दिकर - भूख बढ़ाने वाला (चयापचय क्रिया बढ़ाने वाला )
३. बल्वृध्दिकर - बल बढ़ाने वाला
४. आयुवृध्दिकर - दीर्घ आयुष्य प्रदान करने वाला
५. कल्याणकारी - कल्याण करने वाला ( सर्वांगीण विकास में सहायक )
६. पुण्यकारक - रोग प्रतिरोधक क्षमताओं को बढ़ाने  वाला
७. वृष्यकर - शारीर की सभी धातुओं की वृध्दि करने वाला
८. वर्ण्यकर - शारीर के वर्ण्य (रंग) को उत्तम करने वाला
९. गृहबाधा नाशक - बाहरी संक्रामक रोगों से रक्षा करने वाला
१०. श्रुतधर - एक बार सुनकर याद रखने वाला
[ एक मास में मेधावी व छः मास में श्रुतधर होता है एवं व्याधियों से आक्रान्त नहीं होता ]


सुवर्ण प्रशान  में उपयुक्त द्रव्य


 “ततः च ऐन्द्री ब्राह्मी शंखपुष्पी वचाकल्कं मधुघृतोपेतं हरेणु मात्रं कुशाग्रभिमंत्रितं सोवर्णेनाश्वत्थपत्रेण मेधायुर्बलजननं प्रशायेत ॥
तद वद  ब्राह्मी बलानन्ताशतावर्यन्यतं चूर्णं वा ॥
(अष्टांग संग्रह, उत्तरतंत्र अ. १ )
सुवर्ण भस्म , मधु एवं घृत ब्राह्मी शंखपुष्पी वचा पीपल शतावरी बला इत्यादी द्रव्यों का उपयोग किया जाता है।


सुवर्ण प्राशन पुष्य नक्षत्र पर ही क्यों -
सुवर्ण प्राशन पुष्य नक्षत्र में देने का विधान है।  पुष्य का अर्थ ही पोषण करने वाला , ऊर्जा और शक्ति प्रदान करने वाला है , पुष्य नक्षत्र संरक्षणता संवर्धन और समृध्दि का प्रतीक है।  विद्धानों ने इसे बहुत ही शुभ और मंगलकारी माना है।
पुष्य नक्षत्र में सुवर्ण प्राशन करवाने से यथोचित फल की प्राप्ति होती है।  


सुवर्ण प्राशन योग्य आयु


जन्म से सोलह वर्ष की आयु वर्ग






वैध्य. शैलेश एन. मानकर
                                      बी ए एम एस (नागपुर)
डॉ व्ही जी देशमुख स्मृति ओजस आयुर्वेद
०५ वसुंधरा सुरेन्द्र प्लेस , होशंगाबाद रोड
भोपाल (मध्यप्रदेश )- ४६२०२६

दूरभाष - ९४२५३८२०३२  

सोमवार, 5 अगस्त 2013

॥ गर्भिणी मासानुमासिक क्षीर पाक ॥  

  • प्रथम मास -  जेष्ठमध , सागबीज ,क्षीर काकोली , देवदार,सिध्द दूध
  • व्दितीय मास - आपटा , तीळ , मंजिष्ठा ,पिंपली , शतावरी
  • तृतीय मास -  बांड गुळ , क्षीर काकोली ,गव्हला , सारिवा
  • चतुर्थ मास - अनंता , रास्ना , भारंग मूळ , उपसळसरी , शतावरी
  • पंचम मास - रिंगणी , डोरली, शिवणमूळ , क्षीरीवृक्षकोंब , क्षीरीवृक्ष त्वक घृत
  • षष्ठ मास - पिंठवळ , बला , शिग्रु , गोक्षुर ,जेष्ठमध
  • सप्तम मास - शिंगाडा, कमल तंतू , द्राक्षा , मुस्ता , जेष्ठमध , शर्करा
  • अष्टम मास - कपित्थ ,डोरली , पिठवण , असमूल , बिल्वमूल सिध्द दूध
  • नवम मास - शतावरी , अनन्ता , क्षीरी विदारी , जेष्ठमध

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

ॐ धन्वंतरये नमः॥


 ॐ धन्वंतरये नमः॥ 

 इसके अलावा उनका एक और मंत्र भी है

 ॐ नमो भगवते महासुदर्शनाय वासुदेवाय धन्वंतराये:,
 अमृतकलश हस्ताय सर्वभय विनाशाय सर्वरोगनिवारणाय,
 त्रिलोकपथाय त्रिलोकनाथाय श्री महाविष्णुस्वरूप
 श्री धन्वंतरी स्वरूप श्री श्री श्री औषधचक्र नारायणाय नमः॥ 


 अर्थात परम भगवन को, जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धन्वंतरी कहते हैं, जो अमृत कलश लिये हैं, सर्वभय नाशक हैं, सररोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं और उनका निर्वाह करने वाले हैं; उन विष्णु स्वरूप धन्वंतरी को नमन है।